दोस्तों,
खूबसूरत जिन्दगी
जीने का सपना हर कोई देखता हैं, जिसकी तलाश उसे
शिक्षा के दरवाजे तक ले आती हैं। यही सिलसिला हमें पंजाब यूनिवर्सिटी तक ले आया।
इस यूनिवर्सिटी में पढ़ने का सपना कितने ही नौजवान लड़के-लड़कियो ने लिया होगा और
इस में हर्ज भी क्या हैं। जब पंजाब यूनिवर्सिटी देश की सर्वौच्च विश्वविद्यालय
होने का गौरव हासिल कर चुकी हो और ये भारत के सब से सुन्दर एव विकसित कहे जाने
वाले शहर चंडीगढ़ में सिथत हो तो हर नौजवान का मन उत्साहित होता है कि वह भी इस
यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी होने का गौरव हासिल करे जो इस दौरान तुम्हें हासिल हुआ
है। दाखिला मिलने से पहले इस यूनिवर्सिटी में पैर रखते ही एक अजीब किस्म की उकसाहट
महसूस होने लगती है कि कही हमारे यहा पढ़ने का सपना कही अधूरा ही न रह जाए । जो कि बहुत लोगों
का रह गया पर जब आप सभी शर्तें पूरी कर दाखिल हो चुके हैं तो आगे भी सपनों की पूर्ती
की आशा की जा सकती है | जैसे कि कहा जाता है कि जिंदगी जीने के लिए साँस भर लेने
से ज्यादा जोर लगाना पड़ता है तो और सपनों को साकार करना खाला जी का बाड़ा नहीं |
क्योंकि आज देश की सामाजिक.आर्थिक परिस्थितियों से तो वाकिफ हो ही चुके है और कुछ से रूबरू
होना अभी बाकी है | अब शिक्षा तीसरा नेत्र नहीं बल्कि रोज़गार प्राप्ति का एक साधन
बनती जा रही है और यह साधन हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग को हासिल भी नहीं हैं।
दोस्तों एक वह
दौर भी था जब शिक्षा से दूर रखने के लिए लोगो के कानो में पिघला सिक्का डाल दिया
जाता था और आज वही काम लगातार बढती फीस, प्राइवेट कालज एवं शिक्षा का व्यापारीकरण निभा रहा है। इसी तरह इस बार पंजाब
यूनिवर्सिटी ने विद्यार्थीयो के लबे संघर्ष के बावजूद भी फीसों में 5 प्रतिशत बढ़ोतरी की है। इस ढांचे से पीडित
आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग ही नहीं बल्कि मुख्य रूप से लडकियाँ एवं दलित परिवार
ज्यादा हैं।
अवसरों की कमी,
खर्चे का बोझ, समाज में मौजूद लैंगिक एवं जातिवादी भेदभाव बढ़ी संख्या की
शिक्षा प्राप्ती की राह में रुकावट डाल रहें हैं। सरकार इन सवालों के समाधान की
बजाए, शिक्षा तंत्र को
अम्बानी-बिरला और बाहरी देशों के कारपोरेटों के आगे मुनाफाखोरी के लिए परोस रही
है। WTO के अनुसार शिक्षा को व्यापार के अधीन लाया जा रहा है और इसे लोगों के
अधिकार एवं बौधिक विकास की जगह एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया है। PPP (पब्लिक
प्राइवेट पार्टनरशिप) एवं Self-Financed कोर्स भी इन्हीं नीतियों का एक हिस्सा है। ऐसे हालातों के भीतर एन नीतियों का
विरोध करना केवल आर्थिक लाभ का मसला नहीं बल्कि समाजिक-आर्थिक बराबरी के लिए
संघर्ष का हिस्सा बन जाता है।
जो शिक्षा बराबरी
और बेहतर जिंदगी का रास्ता बन सकती है, निजीकरण और व्यपारीकरण के कारण आर्थिक, सामाजिक, लैंगिक भाषाई और
जातिवादी उत्पीडन को मजबूत करने का काम कर रही है। व्यवस्था के बनाए इस चक्रव्यूह
से किसी न किसी तरह बाहर निकल कर जो विद्यार्थी कालेज या यूनिवर्सिटी तक पहुंच भी जाते हैं, उन्हें शिक्षा व्यवस्था एक मशीन के पुर्जे की तरह तैयार
करती जो बाज़ार के अनुरूप ढल जाए। उन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है वह भूल
जाते हैं की वह इन्सान हैं और उनमें रचनात्मकता की अथाह शक्ति है। विध्यार्थीयों
की रचनात्मकता को कुचल कर उन्हें बाज़ार के अनुरूप बना दिया जाता है जिसका प्रेरक
केवल मुनाफा कमाना रह जाता है और शिक्षा के व्यपारिकरण द्वारा “आइन्स्टीन या मुंशी प्रेम चन्द ” की तर्ज पर समाज का विकास करने की क्षमता का
गला घोंट दिया जाता है।
दोस्तों, मौजूदा समय में जहाँ हमारी औपचारिक शिक्षा में
गैर-वैज्ञानिक और गैर-तार्किक रुझान शामिल हैं उसी तरह यह व्यवहारिकता से टूटी हुई
है। कट्टरता एवं संकीर्णता भी विद्यार्थी के विकास और खोज में बाधा डालती है। जहाँ
पढ़ने के लिए इतना संघर्ष करना पड़ता हो वहाँ रोज़गार का क्या हाल होगा ? किसी को लगता होगा कि वो आसानी से प्रवेश
परीक्षा पास कर लेगा पर हम अक्सर देखते हैं कि बहुत बुधिमान एवं मेधावी छात्र
छात्राएं भी कई कई सालों से इस यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के भीतर तैयारी में जुटे
हुए हैं। न तो योग्यता हेतु नौकरी मिल रही है और न ही वे पीछे मुड़ सकते हैं लेकिन
चेहरे जरूर मुरझा गए हैं और सर के बाल भी सफेद होने लगे हैं।
जब सरकारें शिक्षण
संस्थानों को खर्चे स्वयं जुटाने की हिदायत जारी कर रहीं हैं, ऐसे समय में वर्तमान सरकार के IITs और IIMs खोलने
के वायदे अनपढ़ता के सागर में ज्ञान के कुछ टापू उभारने के सपने दिखाना भर है। सभी
जागरूक विद्यार्थी इन सवालों के समाधान के लिए इकत्रित होने पर तो सहमत ही होंगे
और साथ ही राजनितिक संघर्ष की जरूरत भी ज़ाहिर होती है परन्तु राजनीती शब्द ही
मौका-परस्ती, गुंडागर्दी,
ताकत और पैसे के खेल, शराब की मुफ्त बोतलें महंगी गाडि़याँ और ब्रांडेड कपड़ों की
दिखावेबाज़ी से जुड़ जाता है। राजनीती के इसी रूप को सामने रखते हुए यूनिवर्सिटी
प्रशासन हर तरह की राजनितिक गतिविधियों को खत्म करने की बात करता है। जैसा कि भगत
सिंह ने कहा है “बहुत गंभीर चर्चा
इस बात को लेकर है कि विद्यार्थी राजनितिक गतिविधियों में हिस्सा न लें।... जिन
युवाओं ने कल को देश का वागडोर अपने हाथों में लेनी है उनको आज अकल का अँधा बनाने
की कोशिश की जा रही है और इस का जो नतीजा निकलेगा, वो हमें खुद ही समझ जाना चाहिए। यह हम स्वीकार करते हैं की
विद्यार्थियो का मुख्य कार्य पढ़ना है, पर क्या देश के हालातों का ज्ञान और उनका समाधान सोचने की योग्यता उसी शिक्षा
प्रणाली में शामिल नहीं? अगर नहीं तो हम
उस शिक्षा को ही निक्कमा समझते हैं जो केवल क्लर्की के लिए ही हासिल की जाए।”
तो दोस्तो एक बात
तो साफ है की राजनीती बेशक हमारे समाज के भद्देपन को प्रदर्शित करती है पर दूसरी
तरफ बदलाव का रास्ता भी इसी से गुजरता है। प्रशासन की ओर से भ्रष्ट राजनीती का
विरोध तो महज़ औपचारिकता है लेकिन बदलाव के संघर्षों को कुचलने का हथियार होता है।
यह बात उस समय और स्पष्ट हो जाती है जब बिरला-अम्बानी रिपोर्ट में शिक्षा के
निजीकरण हेतु कैम्पसों से राजनितिक गतिविधियों को खत्म करने की सिफारिश करती है।
क्या विद्यार्थियो के लोकतान्त्रिक अधिकारों को छीन कर भ्रष्ट राजनिती से छुटकारा
पाया जा सकता है ? नहीं, अपितु विद्यार्थियों के अंदर गंभीर राजनितिक
समझ ही इसका असल समाधान है। इसी लिए प्रशासन के दोगले आचरण का विरोध करते हुए
लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए संघर्षों को और तेज़ करना चाहिए।
दोस्तो, आप जानते हैं की अच्छी जिंदगी की राह संघर्षों
से ही गुजरती है और इस संघर्ष का रूप कोई भी हो सकता है | हमारे इस असामान्य,
लूट और उत्पीड़न से भरे सामाजिक-आर्थिक ढांचे
को समझने और बदलने की इस राह पर SFS आपका हार्दिक स्वागत करती है और गदरियों,
डा. अम्बेडकर और भगत सिंह की सोच के अनुसार
समानता पर आधारित समाज के सपने को साकार करने के लिए साथ देने की अपील करती है।